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Friday 16 September 2016

कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं?


विश्व भर के कम्युनिस्ट अपने-अपने देश में, हर प्रकार के अन्याय, भेदभाव, शोषण, दमन-उत्पीडऩ से मुक्त व समानता पर आधारित समाज के सृजन के लिये प्रयत्नशील हैं। इस लक्ष्य के लिये वे, अपने-अपने देश की विशेष आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व भौगोलिक अवस्थाओं के अनुसार उचित गतिविधियों द्वारा मेहनतकश जनसमूहों को एकजुट करते हैं तथा इस विकट मार्ग पर चलते हुए अपने समक्ष उभरती विभिन्न कठिनाईयों से जूझते हुए हर प्रकार का बलिदान भी कर रहे हैं।
इसके बावजूद, सर्वसाधारण के मन में कम्युनिस्टों के लक्ष्य और उद्देश्यों के प्रति विभिन्न प्रकार की अस्पष्टïतायें तथा गलत भावनायें आज भी एक सीमा तक विद्यमान हैं। जिन को और गहरा करने के लिये कम्युनिस्टों के विरोधियों द्वारा जानबूझकर, योजनाबद्ध व जोरदार प्रयत्न किये जाते हैं। उदाहरणत: कम्युनिस्टों का भला न चाहने वालों में बहुत से ऐसे 'महानुभाव' हैं जो कम्युनिस्टों को नितांत अत्याचारी, निर्दयी व हिंसावादी लांछित करके उनकी मानववादी छवि को आम लोगों की नजरों में बिगाडऩे का प्रयत्न करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो कि कम्युनिस्टों के विरुद्ध उनके नास्तिक व सिद्धान्तहीन होने का दुष्प्रचार करके उनके प्रति घृणा की भावना उभारने में निरंतर जुटे रहते हैं। सर्वसाधारण के समक्ष प्रतिदिन उभरती सामाजिक, आर्थिक व प्राकृतिक घटनाओं को समझने के प्रति कम्युनिस्टों के भौतिकवादी दृष्टिïकोण को भी 'गणमान्य' विद्धानों द्वारा बिगाड़कर प्रस्तुत किया जाता है तथा कम्युनिस्टों को पदार्थ अथवा धन दौलत एकत्र करने वाले और विलासी तक बखाना जाता है। कम्युनिस्टों की इस तरह से छवि बिगाडऩे वालों में, एक सीमा तक, भटकावों से ग्रस्त 'कम्युनिस्टों' की भी भूमिका है। हमारे देश में तो इस बात का भी प्रचार किया जा रहा है कि कम्युनिस्टों की विचारधारा एक विदेशी विचारधारा होने के कारण यह इस देश की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के अनुकूल ही नहीं है तथा देश के लिये हानिप्रद है।
दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिनके मन में कम्युनिस्टों के प्रति अपार श्रद्धा है और जो इस श्रद्धावश अथवा अपने निजी अनुभव के आधार पर कम्युनिस्टों को सर्वस्व बलिदानी, निडर, हर प्रकार के लोभ-लालच से मुक्त, साफ-सुथरे, पारदर्शी व्यक्तित्व वाले, सत्य, न्याय तथा अपने सिद्धान्तों के लिये मर मिटने वाले योद्धाओं के तौर पर जानते हैं तथा उन्हें आदर देते हैं। यह बात अलग है कि उनकी ऐसी समझ प्राय: कोरे आदर्शवादी पहलू से ही बनी हुई होती है और उनको कम्युनिस्टों के ऐसे गुणों, लक्षणों के पीछे काम करते बुनियादी कारकों का कोई ठोस ज्ञान नहीं होता। इसलिये हम यहां कम्युनिस्टों के वास्तविक लक्ष्यों व उदेश्यों के प्रति, उनके विरुद्ध शत्रुओं द्वारा लगाये जाते लांछनों संबंधी और कम्युनिस्टों के आसाधारण एव मानववादी नैतिक सरोकारों वाले आचरण संबंधी कुछ जरूरी बुनियादी तथ्य, जिनका आधार पूरी तरह वैज्ञानिक समझदारी पर आधारित है, को स्पष्टï करने का एक छोटा सा प्रयास कर रहे हैं ताकि सर्वसाधारण मेहनतकशों की कम्युनिस्टों के प्रति सही और संतुलित धारणा बन सके।
 

कम्युनिस्टों का सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य 
 घोषित रूप में कम्युनिस्टों का लक्ष्य सामाजिक व आर्थिक असमानताओं, अभावों, अन्यायों तथा अनेक प्रकार की विषमताओं से भरे सामाजिक ढांचे को बदल कर इसके स्थान पर समानता तथा प्रचुरता पर आधारित सामूहिक साझेदारी वाली सामाजिक प्रणाली का निर्माण करना है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि 19वीं शताब्दी के प्रथम अर्ध में विकसित हुई कम्युनिस्ट विचारधारा से पहले भी बहुत से आदर्शवादी समाज सुधारकों, बुद्धिजीवियों व चिन्तकों द्वारा ऐसे ही, भेद-भाव तथा अन्याय मुक्त, समाज के निर्माण के कई सपने संजोये जाते रहे हैं और इस लक्ष्य के लिये कई बार आवाज भी उठाई जाती रही है। विश्व के हर क्षेत्र में तथा हर दौर में तत्कालीन अन्याय, शोषण तथा दमन उत्पीडऩ के विरुद्ध भी ऐसी जोरदार आवाजें उठती रही हैं और आज भी कई एक ऐसे सज्जन हैं जो कि कम्युनिस्ट विचारधारा से तो अनभिज्ञ हैं, परन्तु इस मानवीय दिशा में सहृदयता पूर्वक प्रयत्नशील हैं और इस मार्ग पर चलते हुए कई प्रकार की कठिनाईयों से भी भिड़ रहे हैं। ऐसे मार्ग पर चलते हुए जनता के विशाल भागों को अपने प्रभाव में लाने वाले बहुत से धर्मों की आधारशिलाओं को सुद्ढ़ बनाने वालों का भी इस पहलू से गौरवमई इतिहास है। परन्तु यह भी सत्य है कि पूर्ण सहृïदयता से किये गये वह सारे प्रयास भी सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को समाप्त करने की दिशा में चिरस्थायी परिणाम नहीं निकाल सके। ऐसी सभी विद्रोही आवाज़ें अपने समय के साधन संपन्न लोगों के अन्यायपूर्ण  व्यवहार से पीडि़त लोगों को लाजि़मी तौर पर प्रभावित करती रही हैं; उनको अपनी ओर आकृष्टï भी करती रही हैं, परन्तु ये आवाज़ें उस समय के अत्याचारियों द्वारा दबा दी जाती रही हैं और या फिर विचलित कर उन्हें बेजान बना दिया जाता रहा है। इस त्रासदी का मुख्य कारण सदैव एक ही रहा है; और वह है; इन आन्दोलनों की सैद्धांतिक प्रकृति और उनकी आदर्शवादी, वर्गीय एंव भावनात्मक सीमायें। इन सीमाओं के अधीन ही ये सभी क्षण-भंगुर आन्दोलन सामाजिक प्रतिरोध का निर्माण करने की दिशा को त्याग कर उपदेशात्मक बन जाते रहे हैं और किसी न किसी नाम के 'सर्वशक्तिमान'  को, गुहार लगाने/प्रार्थनाएं करने, पूजा पाठ करने और 'सर्वशक्तिमान' को जिसकी आज्ञा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता, अत्याचारियों को सन्मति देने की आराधनायें करने की राह पर चल पड़ते रहे हैं।
इसके मुकाबले में कम्युनिस्टों के लिये सामाजिक-आर्थिक समता और साझेदारी पर आधारित समाज का निर्माण कोई मनोकल्पित एंव हवाई लक्ष्य नहीं है अपितु उनके लिये यह सामाजिक विकास के शाश्वत नियमों का प्रमाणित निष्कार्ष है और यह किसी भी प्रकार के उपदेशात्मक प्रचार या प्रार्थनाओं का मुहताज नहीं है। कम्युनिस्टों की यह विचारधारा जिसको माक्र्सवादी विचारधारा भी कहा जाता है, न केवल दर्शनशास्त्र (फिलासफी) के वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है अपितु मानवीय समाज की संरचना और इसमें अब तक हुए महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी परिवर्तनों के वैज्ञानिक विश्लेषण अर्थात ''क्या है, क्यों है और कैसे अस्तित्व में आया है? के प्रमाणिक निष्कर्षों पर खड़ी है और निरन्तर रूप में विकसित हो रही हैं। यह वैज्ञानिक नियम ही इस विचारधारा को रूढि़वादी एंव ग्रन्थात्मक रूप धारण करने से बचाते हैं तथा बदलती परिस्थितियों के अनुसार विकसित होने के योग्य बनाते हैं।
 

माक्र्सवादी दर्शन से क्या अभिप्राय है?
 जर्मनी के दार्शनिक, कार्ल माक्र्स द्वारा अपने अभिन्न मित्र और सहयोगी फ्रैडरिक ऐंग्लस के साथ मिलकर उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम अद्र्ध में विकसित की गई वैज्ञानिक विचारधारा को माक्र्सवादी विचारधारा या माक्र्सवादी दर्शन कहा जाता है। यह दर्शन न केवल सृष्टिï को जानने तथा सृष्टिï के साथ संबंधों को समझने के प्रति उस समय तक अर्जित समूह वैज्ञानिक अन्वेषणों और सैद्धान्तिक स्थापनाओं पर आधारित है अपितु समाजवाद की दिशा में सामाजिक परिवर्तन के लिये इन स्थापनाओं को प्रयोग में लाने की ओर एक महान ऐतिहासिक उद्यम है। यह दर्शन यह स्थापित करता है कि सृष्टिï का पासार नाशवान घटना चक्र नहीं है अपितु यह शाश्वत सत्य है जोकि अनादि और अन्त है। पदार्थ के रूप में यह सत्य निरन्तर गति में है और अपने  अटल नियमों के अधीन समय और स्थान के अनुसार भिन्न भिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है। मानवीय मस्तिष्क इसी पदार्थ का एक अतिविकसित रूप है जोकि मानवीय चेतना का भौतिक स्रोत है और भौतिक गति में विद्यमान अटल नियमों की खोज करने और प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को समझने के सक्षम है बशर्ते कि वह इस प्रयोजन हेतु अवश्यमेव कठिन पुरूषार्थ करने का साहस करे। इस प्रकार से यह यथार्थवादी समझदारी उन अध्यात्मवादी समझदारियों के विपरीत है जो कि इस सृष्टिï को किसी परलौकिक शक्ति के आदेशानुसार अस्त्तिव में आई और उसकी इच्छा के अनुसार ही कार्यरत मानती हैं और अन्तिम रूप में उसे नश्वर मानती हैं, जोकि मानवी विचारों को भी किसी 'परम विचार' की ही प्रतिछाया मानती हैं और यह समझती हैं कि मनुष्य प्रकृति के रहस्यों को समझने में असमर्थ है। अत: मनुष्य को तो इस 'सर्वशक्तिमान' की इच्छा में नतमस्तक होकर चलते रहना चाहिये क्योंकि उसकी इच्छा बगैर तो ''पत्ता भी नहीं हिल सकता।'' माक्र्सवादी क्योंकि ऐसे प्राभौतिक एंव निष्क्रियवादी सिद्धांत को रद्द करते हैं, इसलिये उन पर नास्तिकता का आरोप लगा दिया जाता है।
यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि प्रकृति और मनुष्य के इन संबंधों की खोज कर रहे चिन्तकों में आदिकाल से ही दो परस्पर विरोधी मत चले आ रहे हैं। भौतिक सृष्टिï को मानवी विचारों की प्रतिच्छाया मानने वाले, विचार को ही अग्रिम मानते हैं और पदार्थ को, इसके सभी रूपों में, द्वितीय स्थान पर रखते हैं। यह सैद्धांतिक समझदारी रखने वाले दार्शनिकों को विचारवादी या अध्यात्मवादी कहा जाता है जबकि इसके विपरीत विचारों को भौतिक अस्तित्व की प्रतिच्छाया मानने वालों को, जोकि भौतिक सत्य को पहल देते हैं और विचारों को इनकी उपज मानते हैं, भौतिकवादी कहा जाता है। इस तरह भौतिकवाद (Materialism) वास्तव में दर्शन का एक ऐसा पाक्षिक दृष्टिïकोण है जो कि विचारों को भौतिकवादी यथार्थ की उत्पत्ति मानता है, न कि यह भौतिकवादी सुख सुविधाओं का संग्रह करना, जैसा कि शोषण पर आधारित आज के पूंजीवादी दौर के संदर्भ में इस धारणा को  बिगाड़ कर इसे प्रस्तुत किया जाता है। कार्ल माक्र्स, निश्चित तौर पर भौतिकवादी पहँुच की धारणा रखनेवाला दार्शनिक था परन्तु वह दर्शन को प्राकृतिक घटनाक्रम और सामाजिक कार्यकला की व्याख्या तक ही सीमित रखने भर में संतुष्टï नहीं था। उसका बहु-चर्चित कथन, ''अब तक दार्शनिकों ने इस संसार की अलग-अलग ढंग से व्याख्या ही की है, जबकि वास्तविक मुद्दा इसको बदलने का है।'' हमारी इस समझ की पुष्टिï करता है। पूँजीवादी लूट-खसूट के अधीन मजदूर वर्ग के हो रहे शोषण के कारण उस समय तक बन चुकी त्रासदिक सामाजिक-आर्थिक अवस्थाओं से प्रभावित हुई इस भावना के तहत ही कार्ल माक्र्स और उसके साथी फ्रैड्रिक ऐंग्लस ने निरंतर तौर पर हो रहे परिवर्तन की व्याख्या के लिये तत्त्कालीन प्रसिद्ध विचारवादी दार्शनिक हीगल द्वारा विकसित की गई द्वनदात्मक विधि का प्रयोग किया। यह प्रयोग केवल प्रकृति में हो रहे भौतिक परिवर्तनों को समझने के लिए ही नहीं किया अपितु मानवीय समाज में आये महत्त्वपूर्ण परिवर्र्तनों का भी इस विधि द्वारा विश्लेषण किया और इस तरह, सैद्धांतिक पक्ष से, एक नई क्रांतिकारी सिद्धांत को जन्म दिया जिसको द्वन्दात्मक भौतिकवाद कहा जाने लगा।
 

द्वन्दात्मक विधि (Dialectics) क्या है?
 अन्य सभी अध्यात्मवादी विचारों के विपरीत द्वन्दात्मक विधि सृष्टिï को अनायास अस्तित्व में आये पदार्थों व घटनाओं का समूह नहीं समझती, जो कि एक दूसरे से स्वतंत्र हों अथवा परस्पर रूप में अलग-अलग हों; बल्कि, इस सृष्टिï को एक अखण्ड सम्पूर्ण इकाई मानती है जिसमें पदार्थ के भिन्न-भिन्न स्वरूप और घटनाक्रम आपस में पूर्ण रूप से संबंधित हैं, एक दूसरे पर निर्भर हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह सिद्धांत आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषणों पर भी आधारित है तथा ठोस तथ्यों एंव प्रत्यक्ष प्रमाणों से भी भरी पड़ी है। सृष्टिï को जानने व समझने की इस विधि के अनुसार यह सृष्टिï किसी भी प्रकार से अचल या स्थिरता की स्थिति में नहीं है और न ही इसके बीच का कोई स्वरूप या व्यवहार अपरिवर्तनीय है अपितु यह एक ऐसी गति में है जिसके द्वारा निरंतर परिवर्तन हो रहे हैं और यहां पर हर समय कुछ न कुछ नया अस्तित्व में आ रहा है और कुछ न कुछ समाप्त हो रहा है। इसकी व्याख्या आगे परिवर्तन के तीन नियमों के अनुसार की जा रही है:
    1. विरोधियों का मेल और संघर्ष (गति का स्रोत)
    2. मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन (परिवर्तन की विधि)
    3. निषेध का निषेध (परिवर्तन की दिशा)

प्रकृति में हो रहे इन निरंतर परिवर्तनों का कारण पदार्थ के हर अंश में, हर प्राकृतिक अथवा सामाजिक व्यवहार में एंव हर विचार में दो विरोधी तत्वों का अस्तित्व है जिन में निरंतर संघर्ष चलता रहता है। यह संघर्ष ही गति का स्रोत है। इसको 'विरोधियों के मेल और संघर्ष' के एक अटल नियम के तौर पर स्थापित किया गया है। इस समझदारी के अनुसार दोनों विरोधी तत्त्वों में से एक तत्त्व निरंतर घटता जाता है और दूसरा निरंतर बढ़ता जाता है। इसी कारणवश हर समय कुछ नया अस्तित्व में आ रहा होता है और कुछ अन्य अस्तित्वहीन होता जा रहा होता है। इस तरह कोई भी वस्तु, व्यवहार या विचार स्थिर नहीं है और यह प्रक्रिया एक निरंतर चल रही प्रक्रिया है एंव सृष्टिï का मूल लक्षण है।
इस प्रक्रिया के अधीन बढ़ रहे तत्त्व में हो रही मात्रात्मक वृद्धि एक निश्चित सीमा पर पहुंच कर एक नई वस्तु/घटनाक्रम/विचार को जन्म देती है, जिसको मात्रा परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन में प्रकट होने के रूप में जाना जाता है। परन्तु यह गुणात्मक परिवर्तन कोई सहज स्वभाव होने वाला परिवर्तन नहीं होता अपितु एक छलांग के रूप में होता है। उसको क्रांतिकारी परिवर्तन की संज्ञा दी जाती है। इस द्वारा विगत वस्तु/घटनाक्रम/विचार से मूलत: एक अलग वस्तु/घटनाक्रम/विचार अस्तित्व में आते हैं जिनमें आगे चलकर फिर दो नये विरोधी तत्त्वों के मध्य संघर्ष आरंभ हो जाता है।
इस प्रकार से जो तत्त्व किसी पहले तत्त्व को ध्वस्त करके नई वस्तु/घटनाक्रम/विचार के रूप में अस्तित्व में आता है, आगे चलकर उसके नष्टï होने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है, उसके स्थान पर नया अग्रगामी तत्त्व उभर आता है। इस व्यवहार को 'निषेध का निषेध' के तौर पर जाना जाता है। इस तरह सृष्टिï के अन्दर निरंतर परिवर्तन अर्थात विकास की प्रक्रिया युगों-युगान्तरों से चली आ रही है, आज भी चल रही है और आगे भी चलती रहेगी।
जैसा कि पहले बताया गया है, परिवर्तन की निरंतर प्रक्रिया को दर्शाती इस विधि की खोज हीगल ने की थी जो अपने समय का माना हूआ सुप्रसिद्ध विचारवादी दार्शनिक था, परन्तु कार्ल माक्र्स ने उसकी इस खोज के के्रंदीय तत्त्व को ले लिया और इसके विचारवादी फोकट को फेंक दिया। इस विधि को ही उसने आगे मानवीय समाज में हुए व हो रहे परिवर्तनों अर्थात मानव इतिहास का विश्लेषण करने के लिये इस्तेमाल किया क्योंकि उसके सामने तो विषय मुख्यत: असंख्य दु:ख तकलीफों में घिरे हुए मेहनतकशों की त्रासदिक स्थिति को बदलने का था। कार्ल माक्र्स द्वारा इस विधि से मानव इतिहास की, की गई मौलिक खोज द्वारा स्थापित किये गये विकास के वैज्ञानिक नियमों को ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है।
 

सामाजिक विकास की द्वन्दात्मक व्याख्या : ऐतिहासिक भौतिकवाद  कार्ल माक्र्स व फ्रैंडरिक ऐंग्लस द्वारा स्थापित किया ऐतिहासिक भौतिकवाद का वैज्ञानिक सत्य मानव इतिहास के अलग-अलग पड़ावों के द्वन्दात्मक संबंधों का विश्लेषण करता है। यह अब तक हुए समूह सामाजिक परिवर्तनों के कारणों की द्वन्दात्मक विधि द्वारा की गई जांच पड़ताल से न केवल तब तक ऐतिहासिक तौर पर अस्तित्व में आ चुकी चार सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों :
    1. आदि कबीला कम्युनिज़्म
    2. दास प्रथा
    3. सामंतवाद (जागीरदारी) तथा
    4. पूँजीवाद

की व्याख्या करता है अपितु इस विधि द्वारा उन्होंने मानवीय समाज के आगामी और उच्चतर पड़ावों--समाजवाद व कम्युनिज़्म को भी चिन्हित कर लिया है।
मानव विकास के इस महत्त्वपूर्ण व महान विश्लेषण को संपूर्ण करने में कार्ल माक्र्स ने संसार के उस समय के महान जीव विज्ञानी, डार्विन द्वारा वर्षों परिश्रम करके प्रमाणित की गई खोज, जिसके अनुसार जीवों की विभिन्न प्रजातियों की उत्पत्ति व विकास को निर्धारित किया गया है, का भी ठोस रूप में प्रयोग किया। इस खोज द्वारा माक्र्स ने दर्शाया कि कैसे आदिकाल से, अपने बचाव व जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया में लगे हुए मानव ने, शिकार पर निर्भर रह कर और कबीलों में रहते जंगली मनुष्य से विकसित होकर चरवाहे, किसान, कारीगर तथा कारखानेदार बनने तक का लाखों वर्षों का सफर तय किया है। ऐतिहासिक तथ्यों तथा घटनाओं की खोजबीन के आधार पर उसने यह स्थापित किया कि इन सब परिवर्तनों का मूल स्रोत कोई सर्वशक्तिमान, कोई विशेष व्यक्ति या समय-समय पर अवतरित हुआ कोई 'अवतार' नहीं है अपितु मानव द्वारा अपनी आवश्यक्ताओं की पूर्ति के लिये पैदावार करने की अटूट प्रक्रिया है। इस उद्देश्य के लिये मनुष्य ने जहां अपनी उत्पादक  शक्ति द्वारा प्राकृतिक स्रोतों का उपयोग किया है वहीं उसने उत्पादन के लिये औज़ार भी बनाये तथा विकसित किये हैं। मनुष्य की यह प्रतिभा अर्थात् औज़ार बनाने का गुण ही उसे दूसरे जीवों से मुख्य रूप में भिन्न बनाता है।
जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक खाद्य सामग्री व सुरक्षा सबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उत्पादन करने की इस प्रक्रिया के चलते ही जंगली मनुष्य ने आदिकाल में पहले उत्पादन के साधन (औज़ार) के रूप में पत्थरों का प्रयोग किया जो समय पाकर बाद में बढिय़ा तथा धातु से बने हुए औज़ारों के रूप में विकसित हुए। क्योंकि उस समय के इन बुनियादी औज़ारों द्वारा उत्पादन करने की सामथ्र्य इतनी अधिक संभव नहीं थी कि मानव आर्जित उत्पादन को बचाकर उसे अपनी संपत्ति के तौर पर प्रयोग कर सके। इसलिये प्रारंभिक साझेदारी के इस दौर में अपनी सुरक्षा संबंधी और आहार संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वह कबीले में रहने के लिये विवश था। परन्तु उत्पादन के लिये औज़ारों के विकसित हाने और उत्पादक शक्तियों के बढ़ जाने से मानव के लिये जब अपनी जरूरतों की पूर्ति से अधिक उत्पादन करना संभव हो गया तो निजी संपत्ति बनने लगी और साझेदारी वाले इस सामाजिक संबंध में दरारें पैदा होने लगीं और अन्त में यह उत्पादक संबंध तब टूट गये जब कुछ शक्तिशाली कबीलों या व्यक्तियों ने दूसरे कबीले के लोगों को अपने अधीन लाकर उनसे काम करवाना आरम्भ कर दिया। इस तरह आरंभ हो गया दास प्रथा का युग, जहाँ गुलाम-मालिक अपने गुलामों से अपनी इच्छा के अनुसार जो काम करवाना चाहे करवा सकते थे, उन्हें बेच सकते थे और मरवा भी सकते थे। इस तरह से मानव समाज पहले समतामूलक समाज को पीछे छोड़ कर दो वर्गीय समाज में परिवर्तित हो गया। इस नये समाज में कामकाजी व्यस्तता के मुकाबले में फुरसतयाफ्ता गुलाम मालिकों ने जहां कला-कृतियां विकसित कीं वहीं साथ ही उत्पादन के औजार भी और विकसित हुए, जिनसे उत्पादन और बढ़ा, परन्तु इसके साथ ही इस समाज में दो विरोधी तत्त्वों (वर्गों) मालिकों और गुलामों में एक लंबा और रक्त रंजित संघर्ष भी आरंभ हो गया, जिसको वर्ग संघर्ष कहा जाता है। स्वाभाविक तौर पर गुलाम भी चाहते थे कि उन्हें उनकी कमाई में से अधिक भाग मिले। इसलिए वे मालिक व गुलाम के इस संबंध को समाप्त कर स्वतंत्र होना चाहते थे। इस दोहरे चरित्र ने अर्थात् उत्पादन के औज़ारों के विकसित होने से बढ़ी उत्पादक शक्तियों ने और निरंतर तीक्षण होते गये वर्ग संघर्ष ने अंतत: गुलाम मालिकों व गुलामों के इस उत्पादन संबंध को भी, समय पाकर, तोड़ दिया और गुलामदारी से भी उच्चतर एक नई सामाजिक प्रणाली अस्तित्व में ला दी जिसे सामंतवादी समाज कहा जाता है।
इस नयी सामाजिक प्रणाली तक पहुँचते हुए मानव समाज जंगली मनुष्य या चरवाहे से आगे बढ़कर आवश्यक वस्तुओं का कृषि द्वारा उत्पादन करने तक पहुँच चुका था। इसलिये इस प्रणाली के अधीन गुलाम अपने मालिक का बेजुबान और काम करने वाला अधिकारहीन करिन्दा न रह कर अपेक्षाकृत एक स्वतन्त्र सत्ता का मालिक और जागीरदार (सामंत) के खेतों में काम करने वाला मुजारा बन गया जो कि भिन्न-भिन्न प्रकार की पद्धतियों के अनुसार अपनी कमाई में से मालिक को हिस्सा देता था। इस हिस्से के कई रूप विकसित हुए परन्तु उत्पादक साधनों के विकसित होते जाने से और उत्पादन बढऩे से उसके बटवारे संबंधी जागीरदारों व मुजारे खेतीहरों की हड़प्प की गई कमाई के ऊपर पनपी सामन्तशाही के ऐश्वर्य आदि की पूर्ति के लिये आवश्यक वस्तुओं, विशेषकर वस्त्रों और बर्तनों आदि का उत्पादन करने वाले कारीगरों का एक नया वर्ग भी पैदा हो गया जो कि स्वयं ही उन वस्तुओं का व्यापार भी करता था। इस तीसरे वर्ग के हित भी यह मांग करते थे कि उस द्वारा पैदा की गई वस्तुओं की माँग बढ़े तथा उसकी शिल्प कला का अधिक से अधिक मूल्य पड़े। ऐसा तभी संभव था यदि मुजारे किसानों के विशाल भागों की क्रय शक्ति में बढ़ौत्तरी हो। इसलिए उनके द्वारा पैदा की जाती वस्तुओं में उनका भाग बढऩा जरूरी था। इस लिए स्वाभाविक तौर पर शिल्पियों तथा व्यापारियों के इस वर्ग ने भी किसानों के आन्दोलनों के साथ सहानुभूति प्रकट की और जिससे उत्पादक औज़ारों--साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तन होने से कारखाना प्रणाली विकसित हुई, तो कारखानेदारों और व्यापारियों का यह तीसरा वर्ग सामंती जागीरदारी प्रबन्ध के विरुद्ध किसानों के चल रहे वर्ग संघर्ष में हमदर्द से बढ़कर अगुवा बनने तक जा पहुँचा। 17वीं शताब्दी में उत्पादक शक्तियों में हुई इस बढ़ौत्तरी ने तथा जगीरदारों व किसानों, शिल्पकारों, व्यापारियों आदि में बढ़े टकराव ने जागीरदारी प्रबन्ध के पैदावारी संबंधों को तोडऩा आरंभ कर दिया और एक नई उत्पादन प्रणाली विकसित करनी आरंभ कर दी जिसमें कारखानों के मालिक पूँजीपतियों का वर्चस्व हो गया। इस तरह विश्व भर में पूँजीवाद की उत्पत्ति और विकास का दौर अरंभ हो गया।
परंतु, यहां जागीरदार वर्ग की समाप्ति और पूँजीवादी प्रणाली का उदय होने के साथ साथ ही एक और नये वर्ग--मजदूर वर्ग, ने भी जन्म ले लिया जो कि किसी भी प्रकार की संपत्ति से विहीन था और जिसके पास अपनी श्रम शक्ति के बिना अपने जीवन निर्वाह के लिये और कोई साधन नहीं है। इसलिए पूंजीवादी प्रणाली के अधीन मजदूर वर्ग, जो कि अब सबसे अधिक उत्पीडऩ का शिकार है, तथा पूंजीपतियों के बीच वर्ग संघर्ष शुरू हो गया। कार्ल माक्र्स ने अपने महान ग्रन्थ 'दास कैपीटल' (पूँजी) द्वारा पूँजीवादी प्रणाली के अन्र्तगत इन अन्तविरोधों का बहुत ही विवेक पूर्वक और प्रमाणित विश्लेषण कर यह सिद्ध किया कि पूँजीवाद के आरंभ से ही इस प्रणाली का कबर खोद अर्थात मजदूर वर्ग पैदा हो चुका है और यह वर्ग मानवीय समाज में अब तक पैदा हुए सब वर्गों से अधिक जुझारू क्रांतिकारी वर्ग है जो कि वर्ग संघर्ष को उस सीमा तक ले जाने में समर्थ है जहां कि समाज में वर्ग भेद समाप्त हो जायेंगे; मानव द्वारा मानव का शोषण समाप्त हो जायेगा और मानवीय श्रम के गौरव से समता पर आधारित एक बेहतर समाज विकसित हो जायेगा, जिसको कम्युनिज़्म (साम्यवाद) कहा जायेगा।
इस तरह कार्ल माक्र्स ने न केवल वर्तमान पूँजीवादी प्रणाली के अन्तर्गत अन्तर्निहित अन्तर्विरोधों के कारण इसके, पिछली तीनों ही प्रणालियों की भान्ति, समाप्त हो जाने व अतीत की स्मृति बन जाने की वैज्ञानिक आधार पर भविष्यवाणी की, अपितु इन्हीं वैज्ञानिक नियमों अर्थात उत्पादक शक्तियों के बढऩे से उनका उत्पादक संबंधों से टकराव में आना तथा अपने विकास हेतु उन संबंधों को तोड़ देने, द्वारा यह भी स्थापित कर दिया कि मानव श्रम शक्ति की लूट पर खड़ी पूँजीवादी प्रणाली के स्थान पर एक नयी प्रणाली विकसित होगी जिसमें उत्पादन के समूचे साधन निजी स्वामित्व में नहीं, अपितु समूचे समाज के स्वामित्व में होंगे। इस में काम न करने वालों की कोई जगह नहीं होगी, 'हर एक से उसकी सामथ्र्य के अनुसार काम लिया जायेगा, हर एक को उसके काम के अनुसार पारिश्रमिक अदा किया जायेगा।' यह प्रणाली समाजवादी प्रणाली कहलायेगी जो कि आगे चलकर कम्युनिज़्म की ओर बढ़ जायेगी जहां कि 'हर एक से उसकी सामथ्र्य के अनुसार काम लिया जायेगा और हर एक को उसकी आवश्यकताओं के अनुसार पारिश्रमिक दिया जायेगा।' कार्ल माक्र्स ने, इस तरह यह प्रस्थापित किया कि हरेक सामाजिक प्रणाली के अस्तित्व को उसकी भीतरी उत्पादक शक्तियाँ (उत्पादन के साधन+श्रम शक्ति) और उत्पादन के संबंध निर्धारित करते हैं और इन्हीं के बीच अन्तर्विरोध विशेष तौर पर उत्पादन क्रिया में सक्रिय अलग-अलग वर्गों का परस्पर संघर्ष (वर्ग संघर्ष) उस प्रणाली की स्थापना और समप्ति में अहम भूमिका निभाता है। इस प्रकार वर्ग संघर्ष ही सामाजिक विकास की चालक शक्ति होता है। इसके साथ ही उसने यह भी स्थापित किया कि उत्पादक शक्तियों और उत्पादक संबंधों के अनुसार बनते आधार पर, राज्य प्रणाली व संस्कृति आदि का एक ढाँचा भी निर्मित होता है जोकि हर एक सामाजिक प्रणाली में होते परिर्वतनों की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। इस समस्त ढाँचे में से राज्य शक्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है जो कि शासक वर्गों (गुलाम मालिकों, सामन्तों व पूँजीपतियों) द्वारा निचले वर्गों को दबाये रखने के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार से अति निर्दयतापूर्वक प्रयुक्त की जाती है। इस तरह सामाजिक-परिवर्तन के लिये प्रयासरत शक्ति, वर्तमान संदर्भ में श्रमिक वर्ग, के लिये यह परम आवश्यक होता है कि वह इस राज्य शक्ति पर आधिपत्य जमाये और इसके स्थान पर अपने विकास हेतु उपयोगी नई राज्य शक्ति स्थापित करे। इस उद्देश्य के लिये कार्ल माक्र्स ने पूँजीवाद के अन्तर्गत समूह अन्तर्विरोधों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने के अतिरिक्त शोषण से मुक्ति प्राप्त करने के लिये विश्व भरके मजदूरों का एक होकर वर्ग संघर्ष प्रचंड करने का भी आह्वïवान किया। कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो (घोषणा पत्र) द्वारा यह आह्वïान करते हुए उन्होंने कहा कि इस संघर्ष में ''मजदूरों के पास अपनी जंजीरों को खोने के सिवाए और कुछ नहीं है, जबकि उनके पास जीतने के लिये सारा संसार है।'' बाहरमुखी घटनाओं से प्राप्त अनुभव और सिद्धांत के आधार पर, उन्होंने यह भी स्पष्टï किया कि पुंजीवादी शोषण से मुक्ति पाकर समाजवाद और आगे कम्युनिज़्म (साम्यवाद)  की ओर बढऩे का कोई सीधा स्पष्टï व सरल मार्ग नहीं हैं अपितु यह मार्ग बेहद कठिन व पेचीदा होगा। परन्तु, मजदूर वर्ग जो कि पूँजीवाद ने पैदा किया है वह पूँजीवाद में अन्तर्निहित अन्तविरोधों को समझ कर और उनके समाधान के लिये वर्ग संघर्ष के द्वारा इस कार्य को अवश्य ही परिपूर्ण कर लेगा क्योंकि यह वर्ग समाज में उभरे अब तक के सभी वर्गों में से सर्वाधिक कर्मठ व क्रांतिकारी वर्ग है। महान माक्र्स द्वारा विकसित की गई वैज्ञानिक स्थापनाओं के आधार पर परिस्थापित की गई समाज के विकास की इस अवधारणा को द्वन्दात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है। निश्चित तौर पर यह एक प्रमाणिक विज्ञान है और विश्व भर में मौजूद समग्र आर्थिक-सामाजिक व्यवहारों की तर्कसंगत व्याख्या करने में सक्षम है। यह निश्चय ही मानव की एक बहुमूल्य प्राप्ति है। इसलिये इसे किसी एक देश या काल के साथ नहीं बांधा जा सकता जैसा कि अन्य प्राकृतिक विज्ञानों की खोजों को किसी भी एक देश या राष्टï्र के साथ नहीं बांधा जाता।
 

पूँजीवाद के भीतरी अन्तर्विरोधों का स्रोत 
 पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली के अन्तर्गत अन्तर्विरोधों के समाधान के लिये कार्ल माक्र्स के समय से पहले भी विद्वानों नेे काफी खोज भरपूर स्थापनायें की हुई हैं। परन्तु इन सैद्धांतिक स्थापनाओं का उद्देश्य पूँजीवादी प्रणाली को सुदृढ़ बनाने और संकट मुक्त रखने के लिये प्रयास करना ही रहा है। इस प्रयोजन के लिये उन्हों ने पूंजीवादी उत्पादन के भिन्न-भिन्न उत्पादक साधनों के बीच बंटवारे के कई सिद्धांत रचे हैं। परन्तु कार्ल माक्र्स द्वारा राजनैतिक-आर्थिकता के इस क्षेत्र में एक बिलकुल भिन्न बढ़ौत्तरी की गई है। उसने पूँजीवादी प्रणाली में समय-समय पर उभरे सारे संकटों की जड़ पकड़ी है। इस उद्देश्य के लिये उसने यूरोप में तब यौवन पर रही पूँजीवादी प्रणाली का वैज्ञानिक विश्लेषण किया और इस प्रणाली के अन्तर्गत क्रियाशील समूह अन्तर्विरोधों के ठोस रूप में चिन्हित किया। उनके द्वारा यह बहुमूल्य अध्ययन ही ''पूँजी'' शीर्षक से तीन जिल्दों पर आधारित ग्रन्थ में अंकित किया गया है। कार्ल माक्र्स द्वारा पूँजीवादी प्रबन्ध के किये गए अध्ययन द्वारा स्थापित की गई सैद्धांतिक धारणाओं का प्रयोग करके महान लेनिन ने आगे पूँजीवाद के अन्तिम पड़ाव साम्राज्यवाद का विश्लेषण करते हुए सामाजिक विकास के इस माक्र्सवादी सिद्धांत में ठोस बढ़ौत्तरी की। अपनी अन्तिम और मरणासन्न सीमा की ओर बढ़ रहे पूँजीवाद का ऐसा विश्लेषणात्मक अध्ययन ही आधुनिक राजनीतिक अर्थशास्त्र की असल विषय-वस्तु है। विज्ञान के इस क्षेत्र में निहित सैद्धांतिक स्थापनाओं के द्वारा अपने देश की बाहरमुखी ठोस अवस्थाओं का विश्लेषण करके ही कम्युनिस्ट अपने अपने देशों में वर्ग संघर्ष की कारगर योजनाबन्दी कर सकते हैं। जैसा कि वी.आई. लेनिन के नेतृत्व में रूस की कम्युनिस्ट पार्टी (बाल्शविक) ने अपने देश मेें करके दिखाया और वहां ज़ारशाही का खात्मां करके एक समाजवादी समाज की आधारशिलायें रखी। विश्व स्तर पर इससे; पूँजीवाद का समाजवाद में परिवर्तन होने का दौर आरंभ हो गया है। चाहे लेनिन और स्टालिन के बाद वहां की कम्युनिस्ट पार्टी में उभरे कुछ संशोधनवादी नेताओं की गलत नीतियों के कारण तथा उस पार्टी में घुस आए साम्राज्यवाद के पि_ïू गद्दारों की साजिशों के कारण वहां समाजवाद को अस्थायी तौर पर ध्वस्त किया जा चुका है, परंतु इस भारी हानि के बावजूद भी समाजवाद ही पूँजीवाद के विकल्प के तौर पर विश्व भर में मेहनतकशों के लिये ध्रुव तारे की भूमिका निभा रहा है।
पूँजीवादी प्रणाली का सबसे अधिक अद्वितीय लक्षण है-वस्तु उत्पादन। इसका अर्थ है कि यहां वस्तुएं मुख्य बाजार के लिये अर्थात बेचने के लिये पैदा की जातीं हैं। इस उत्पादन की चाल को मण्डी की शक्तियां निर्धारित करती हैं और पैदावार के लिए मुख्य चालक शक्ति (प्रेरक शक्ति) मानवीय आवश्यक्ताओं की पूर्ति के स्थान पर मुनाफा बन जाता है। मुनाफा उत्पादन का वह भाग है जो कि उत्पादन को उसके उपयोगिता मूल्य के अनुसार बेचने और सभी देन-दारियों की अदायगी करने के बाद उत्पादन साधनों के मालिक, जैसे कि कारखानेदार, के पास बच जाता है। उदाहरण के तौर पर यदि एक कारखानेदार 1000 रुपये का धागा खरीद कर उससे बना कपड़ा 1800 रुपये में बेचता है तो उसने इस धागे के उपयोगिता मूल्य में 800 रुपये की वृद्धि की है। यह उपयोगिता मूल्य मशीनों व मजदूरों की श्रम शक्ति द्वारा पैदा हुआ है। इसलिये यदि मालिक मशीनों की घिसाई, बिजली आदि के 300 रुपये रख कर शेष बचे 500 रुपयों में से मजदूरों को 250 रुपये देता है और 250 रुपये अपने मुनाफे के तौर पर रखता है तो उसने मजदूरों द्वारा पैदा किये 500 रुपये के कुल मूल्य में से आधा मूल्य स्वयं रख लिया है जो कि उसके लिये मुनाफा है, परंतु, यह मजदूरों द्वारा लगाई गई श्रम शक्ति में से हथियाया गया अतिरिक्त मूल्य (Surplus Value) है। मान लीजिये यदि मजदूर ने 500 रुपये का मूल्य पैदा करने के लिये 8 घण्टे काम किया हो तो उसे केवल 4 घंटे का मेहनताना ही मिला है और शेष 4 घंटे में उसने अतिरिक्त मूल्य ही पैदा किया है। यह अतिरिक्त मूल्य ही समूची पूँजीवादी प्रणाली को चला रहा है और पूँजीपति सदैव इस बात के लिये प्रयत्नशील रहते हैं कि उनकी वस्तुओं में से उन्हें अधिक से अधिक अतिरिक्त मूल्य मिले। इस प्रयोजन हेतु उनकी यही पहुँच रहती है कि मजदूरों से काम इस तरह लिया जाये कि उनको दी जाने वाले पारिश्रमिक के मुकाबले में अधिक से अधिक मूल्य हथियाया जा सके। यह अतिरिक्त कमाई जितनी अधिक होगी उतना ही मालिकों का मुनाफा बढ़ जायेगा। अतिरिक्त मूल्य के रूप में श्रम शक्ति की यह लूट ही वर्ग संघर्ष को प्रचण्ड करने का आधार बनती है और सामाजिक परिर्वतन की दिशा में स्पष्टïता आती है।
पूँजीवाद के अंतर्गत उत्पादन साधनों में हुई क्रांतिकारी उन्नति के कारण उत्पादन की प्रक्रिया बहुत ही जटिल और पेचीदा होती जा रही है और उत्पादन पूर्णतय एक सामाजिक रूप धारण कर चुका है। परंतु ,इस सामाजिक उत्पादन को उत्पादन के साधनों के मालिकों द्वारा निजी तौर पर हथियाया जाना पूँजीवादी प्रणाली का मुख्य अन्त र्विरोध बन जाता है जिस का समाधान उत्पादन साधनों के सामाजीकरण में अर्थात, समाजवाद में ही है। पूँजीपतियों द्वारा हथियाया गया अतिरिक्त मूल्य बिना बंटी संपत्ति के रूप में एकत्र होकर कई क्षेत्रों मेें अतिरिक्त उत्पादन का संकट खड़ा कर देता है। उन क्षेत्रों में इस तरह आया ठहराव कारखाने बन्द करने के लिये विवश कर देता है और मजदूरों का रोजगार छीन लेता है। इस तरह आपाधापी के कारण यदि एक ओर धन-संपत्ति बढ़ती है तो दूसरी ओर मंदहाली का दौर आरंभ हो जाता है जो कि बेरोजगारी तथा असमान विकास को जन्म देता है।
यह घटनाक्रम पूँजीपतियों को नये बाजारों को खोजने के लिये प्रेरित करता है और बाजार पर कब्जे के लिए युद्ध होते हैं। मौजूदा साम्राज्यवादी विश्वीकरण बाजारों पर अधिकार जमाने की इस दौड़ को ही रूपमान करता है। यह बड़ी-बड़ी बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा अपने अपने अतिरिक्त उत्पादन बेचने के लिये भी है तथा उनके पास एकत्र हुई वित्तीय पूँजी के समूचे संसार में बेरोक टोक प्रवेश कराने के लिये भी है ताकि इस पूँजी को पिछड़े देशों की सस्ती से सस्ती श्रम शक्ति की लूट करने का, वहां के कच्चे माल व प्राकृतिक स्रोतों को हथियाने का अवसर मिल सके। इस उद्देश्य के लिये यह विशालकाय कंपनियां दूसरे देशों की कमजोर उत्पादन इकाईयों को खरीदकर या भागीदारी द्वारा भी अपने अधिपत्य में ले रही हैं ताकि परस्पर प्रतियोगिता घटाई जा सके तथा अपनी इजारेदारी कायम की जा सके। इस तरह यह साम्राज्यवादी विश्वीकरण इस बढ़ रहे पूंजीवादी संकट को काबू करने का एक प्रयत्न है पर यह आगे नयी समस्याओं को जन्म दे रहा है। क्योंकि इस तरह पूँजी कुछ एक बड़ी कंपनियों/संस्थानों के हाथों में तेजी से एकत्र होती जा रही है और कंगाल हुए मजदूरों में बेचैनी बढ़ रही है। दूसरी ओर अधिक से अधिक सूक्ष्म मशीनरी का प्रयोग बढ़ते जाने से मुनाफे की दर घट रही है। इसलिये एक ओर पूँजी के कुछेक हाथों में केंद्रित होने की प्रक्रिया तेज हो रही है तो दूसरी ओर परजीवी पूँजी द्वारा पूँजी बाजार में सट्टïेबाजी का अमल तीखा किया जा रहा है। इसी कारणवश गरीब देशों की आर्थिक स्वतन्त्रता खतरे में है और समूचे तौर पर आर्थिक असुरक्षा भी बढ़ रही है जो कि बहुत ही भयानक किस्म की मन्दी पैदा कर सकती है और अधिक निर्दयता भरी लूट-खसूट तथा सामाजिक तनाव को उभार सकती है। सामाजिक अस्थिरता में निहित इस संभावित अमानवीय घटनाक्रमों की रोकथाम के लिये तथा जनता के लिए दिनो-दिन असहनीय होती जा रही पूँजीवादी प्रणाली के स्थान पर विश्व भर के कम्युनिस्ट समाजवादी प्रणाली स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील है।
 

कम्युनिस्टों के मुख्य कार्य
मनुष्य के लिये विकास करने के समान अवसरों पर आधारित न्याय संगत समाज की संरचना के लिये कम्युनिस्ट अन्य आदर्शवादी समाज सुधारकों की भान्ति आशावादी तो बहुत है परंतु उनकी तरह शेखचिल्लीवादी नहीं अपितु यथार्थवादी हैं और, ये उनकी तरह सभी मौजूदा अन्यायों व बेईमानियों के जन्मदाताओं, अत्याचारियों को उपदेशात्मक विधि द्वारा या किसी तरह की अगम्य शक्तियों के श्राप का भय देकर उनकी मनोवृत्तियों को बदल देने का,भ्रम भी नहीं पालते। इसके विपरीत, कम्युनिस्ट, माक्र्सवादी-लेनिनवादी वैज्ञानिक समझ के अनुसार मौजूदा सामाजिक प्रबन्ध में उभरते व फलते-फूलते सभी घटनाक्रमों का ठोस अवस्थाओं के आधार पर ठोस विश्लेषण करते हैं और निरंतर बढ़ती जा रही तथा अधिक से अधिक क्रूरता भरपूर होती जा रही पूंजीवादी लूट-खसूट के विरुद्ध चल रहे वर्ग संघर्ष के बारे में श्रमिक वर्ग को जागरूक करते, संगठित करते और संघर्षों की राह पर डालते हैं। यह वर्ग संघर्ष केवल आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं अपितु राजनीतिक क्षेत्र में, सांस्कृतिक क्षेत्र में भी साथ-साथ चलता है। कम्युनिस्टों के सम्मुख यह भी कार्य होता है कि सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में चल रहे वर्ग संघर्ष के इन विभिन्न रूपों के मध्य सुगठित तालमेल स्थापित किया जाये ताकि इस संघर्ष की तीक्षणता बढ़ सके और सामाजिक विकास की प्रक्रिया अपने उद्देश्य के अनुरूप निष्कर्ष निकाल सके और आगामी उच्चतर पड़ाव पर पहुँच सके।
वर्ग संघर्ष के इन सभी रूपों में से राजनैतिक संघर्ष को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व दिया जाता है ताकि राज्यसत्ता, जो पूंजीवादी शोषण को कायम रखने के लिये अस्तित्व में लाई गई है और इस प्रणाली को स्थापित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, को सर्वहारा वर्ग के अधीन लाया जा सके। यह राज्यसत्ता, वर्ग संघर्ष को पूँजीपतियों के पक्ष से प्रभावित करती है और उसको रोकती है। अत: राज्यसत्ता पर अधिकार करना मजदूर वर्ग का तात्त्कालिक और महत्त्वपूर्ण कत्र्तव्य बन जाता है तथा प्राय: इसको ही क्रांति लाना कहा जाता है। इस कार्य के लिये मजदूर वर्ग की एक ऐसी राजनैतिक पार्टी की आवश्यकता पैदा होती है जो कि उपरोक्त सभी कार्यों को संपन्न करने के सक्षम हो। महान लेनिन ने ऐसी ही पार्टी के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा था : ''सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष में मजदूर वर्ग के पास उसका संगठन ही एक मात्र हथियार है।'' और सामाजिक विकास के मौजूदा पूँजीवादी दौर में ''क्रांतिकारी पार्टी के बिना क्रांति नहीं हो सकती।'' इसके साथ ही लेनिन ने मजदूर वर्ग की अनुशासनबद्ध पार्टी की संरचना और उसके अद्वितीय लक्षणों को भी सूत्रबद्ध किया व उसकी फौलादी एकजुटता को और ऐसे अनुशासन को उभारा जो कि पार्टी में काम करते सभी नेताओं और सदस्यों पर एक समान लागू होता हो। ऐसी पार्टी के सामने सर्वप्रथम यह कार्य होता है कि वह अपने देश की उत्पादक शक्तियों और उत्पादक संबंधों का, उत्पादक शक्तियों के विकास में बाधक बन रहे शासक वर्गों की सूत्रबद्धता का, राज्यसत्ता के स्वरूप और रचना का तथा प्रचलित उत्पादक संबंधों को तोड़कर आगे बढऩे की उत्कण्ठा रखते वर्गों की वर्ग संघर्ष में भूमिका संबंधी ठोस अवस्थाओं का माक्र्सवादी दृष्टिïकोण से ठोस अध्ययन करे और उस अध्ययन के आधार पर अपना युद्धनीतिक लक्ष्य तय करे। यह युद्धनीतिक लक्ष्य ही पार्टी का कार्यक्रम कहलाता है। फिर उस कार्यक्रम के कार्यन्वयन के योग्य पार्टी का निर्माण किया जाता है जो कि चल रहे सामाजिक आर्थिक घटनाक्रम के सन्दर्भ में उचित दाँव-पेच लगा कर प्रभावशाली हस्तक्षेप करने में सक्ष्म हो। केवल इसी प्रकार के सुगठित व निरन्तर उद्यम द्वारा ही कम्युनिस्ट वाँछनीय निष्कर्ष निकालने अर्थात वर्ग संघर्ष को विजयी बनाने के समर्थ हो सकते हैं।
 

भारतीय क्रांति की रूपरेखा   आधुनिक भारतीय समाज का उपरोक्त माक्र्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिïकोण से यदि विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट होता है कि अभी यहां पूर्व पूँजीवादी अवशेषों वाला सामंती व अर्ध सामंती उत्पादक ढाँचा भी कायम है और देश की राज्यसत्ता इजारेदार-पूंजीपतियों के नेतृत्व में पूँजीपतियों व जगीरदारों के पास है जो कि यहां पूँजीवादी ढाँचे के निर्माण के लिये विदेशी पूँजीपतियों से घनिष्टता निरंतर बढ़ाते जा रहे हैं। देश में भेदभाव और अन्यायपूर्ण मध्य युगीन वर्ण भेद की जड़ें भी काफी गहरी हैं और यहां विभित्र प्रकार के धार्मिक विश्वासों और अन्ध विश्वासों को मानने वाले लोग बसते हैं जिनकी सोच पर धार्मिक कट्टïरपंथियों की जकड़ अभी काफी मजबूत है। देश में सर्वमत-वोट-व्यवस्था वाली संसदीय प्रणाली पर आधारित सरकार का गठन होता है परंतु राज्यसत्ता पर काबिज वर्ग अपने वर्गीय हितों की खातिर इस चुनाव प्रणाली के अन्दर का जनवादी तत्त्व निरंतर कमजोर करता जा रहा है और अपनी दमनकारी प्रशासनिक मशीनरी को मजबूत करता जा रहा है जबकि अनपढ़ता तथा सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार करोड़ों देशवासी जनवादी अधिकारों को सही अर्थों में समझने और कल्याणकारी दिशा में उनका प्रयोग करने के प्रति काफी हद तक अनजान हैं।
ऐतिहासिक तौर पर, अंग्रेज साम्राज्यवादियों द्वारा भारत पर अधिकार जमाने से पहले यहां सामन्तवाद का दौर दौरा था, अर्थात जागीरदारी प्रणाली कायम थी, जिसके विरुद्ध समय समय पर किसानों की बगावतें उठ रही थीं। इसीलिए यहां उपनिवेशवादी गुलामी से मुक्ति के संग्राम की मुख्यधारा साम्राज्यवाद विरोधी होने के साथ साथ जागीरदार (सामंत) विरोधी भी थी अर्थात यह संग्राम राष्टï्रवादी व जनवादी था। इसीलिए देश का पूँजीपति वर्ग इस स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व हासिल कर गया था।
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति और देश की राज्यसत्ता का परिवर्तन होते समय राज्यसत्ता के पूँजीपतियों के हाथों में आने के पश्चात नये शासकों ने देश में पूँजीवादी पथ पर विकास करने की राह अपनाई। इस प्रयोजन के लिये उन्होंने साम्राज्यवादी पूँजी जब्त करने और सामंती प्रबन्ध खत्म करके उनकी जमीन-जायदाद गरीबों व भूमिहीन किसानों व खेत मजदूरों में बाँटने की जगह, इसके विपरीत विदेशी पूँजीपतियों के साथ भागीदारी करके उनके हित सुरक्षित रखने का वचन पाला और देश में अपने सामाजिक आधार को विस्तृत करने के लिये जागीरदारों के साथ भी राजनैतिक साँठगाँठ कर ली।
इस तरह देश में साम्राज्यवादियों व जागीरदारों की लूट-खसूट के विरुद्ध चल रही राष्टï्रीय जनवादी क्रांति अधर में लटक गई और राज्यसत्ता पर काबिज हुआ नया वर्गीय गठजोड़ देश में साम्राज्यवादी व सामंती हितों को कायम रखते हुए पूँजीवाद को विकसित करने की दीवालिया राह पर चल निकला। शासकों द्वारा इस दिशा में अपनाई जा रही समस्त नीतियां वास्तव में मज़दूरों, किसानों तथा अन्य मेहनतकश लोगों के हितों के लिये हानिप्रद हैं। यहां तक कि कई बार तो छोटे पूँजीपति और अन्य मध्यवर्गीय लोगों के लिये भी ये नीतियां अति घातक परिणाम निकालती हैं, इन्हीं नीतियों के कारण ही देश में पिछले 60 वर्षों के दौरान मंदहाली, महंगाई, बेकारी, भ्रष्टïाचार, नैतिक पतन आदि बीमारियां लगातार बढ़ती ही गई हैं और अमीरों व गरीबों की बीच की खाई भी अति भयानक सीमा तक बढ़ गई है। धर्म निरपेक्ष, जनवादी व स्वस्थ नैतिक मूल्यों पर भी इस अवधि में आक्रमण तीव्र रूप से बढ़ते गये हैं।
इस अवस्था में जरूरत इस बात की है कि 1947 में अधर में लटक गई क्रांति को संपूर्ण करने के लिये नये बने शासक गठजोड़ के विरुद्ध अर्थात जागीरदारों, साम्राज्यवादियों तथा इजारेदार पूँजीपतियों के विरोध में देश के समूचे सर्व साधारण जनसमूहों को संघर्षशील किया जाये और विशाल जन लामबंदी द्वारा वर्ग संघर्ष को प्रचण्ड करके जन-हितैषी सामाजिक परिवर्तन किया जाये अर्थात ऐसी लोक जनवादी क्रांति की जाये जो कि जनता के उपरोक्त तीनों ही वर्ग शत्रुओं के विरुद्ध हो, अर्थात जागीरदार विरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी, इजारेदार विरोधी, जनवादी क्रांति हो।
भारत जैसे सामंती, अद्र्ध सामंती और पूँजीवादी ढाँचे में ऐसी जन हितैषी क्रांति को सफलबनाने के लिये कृषि को सामंती जकड़ से निकालना सर्वप्रथम अनिवार्यता बन जाती है ताकि कृषि उत्पादन में भी वृद्धि हो और कृषि पर निर्भर 70 प्रतिशत जनसंख्या की क्रय शक्ति भी बढ़े जो कि देश में औद्योगिक उत्पादन के लिये निरंतर विकसित होने वाला बाजार भी उपलब्ध करवाये। इसके लिये राजनीतिक पहलू से आज के युग के सबसे अधिक क्रांतिकारी वर्ग अर्थात मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मजदूरों व गरीब किसानों (जिनमें भूमिहीन किसान व खेत मजदूर प्रमुख हैं) की एकता बनाना सबसे बड़ी और प्रथम जरूरत है। ऐसी मजबूत और शक्तिशाली जन-एकता के ठोस आधार पर निर्मित लोक जनवादी गठजोड़ के गिर्द कुछ और वर्ग जैसे कि मंझले किसान, शिल्पी, छोटे दुकानदार, छोटे व्यापारी, छोटे कर्मचारी, धनी किसान, और गैर-इजारेदार पूँजीपतियों आदि का सहयोग प्राप्त करने के लिये निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिये।
परन्तु ऐसी वैज्ञानिक अवधारणा अपनाकर देश में अधूरी रही जनवादी क्रांति को सम्पूर्ण बनाने के लिये प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान करने के स्थान पर यहां भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य बलिदान दिये और संघर्ष में बहुत बड़ा योगदान किया था, 1947 में राज्यसत्ता में हुए परिर्वतन को समझने में असफल रहा और संकीर्णतावादी वाम-भटकाव का शिकार हो कर दुस्साहसवाद की राह पर चल निकला। परन्तु, आन्दोलन का पर्याप्त नुकसान करा कर जब यह वाम-भटकाव से पीछे मुड़ा तो फिर दायें भटकाव का शिकार हो कर 1964 में विभाजित हो गया।
इस ऐतिहासिक विभाजन के पश्चात नयी बनी पार्टी--सी.पी.आई.(एम), ने तो यहां अधूरी रही जनवादी क्रांति को संपूर्ण करने के लिये उपरोक्त वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार लोक-जनवादी-क्रांति का प्रोग्राम बना लिया परन्तु पुरानी पार्टी--सी.पी.आई., ने इस उद्देश्य के लिये शासकों अर्थात पूँजीपति वर्ग से सहयोग करने की नीति अपनाने की राहें चुन ली, जिस राह पर यह पार्टी आज भी चल रही है और सांसदीय अवसरवाद की दलदल में फंस कर कम्युनिस्ट चरित्र को निरंतर खोती जा रही है।
दूसरी ओर, सी.पी.आई.(एम) को, स्वाभाविक रूप से, देश के शासकों के दमन का शिकार होना पड़ा। परंतु, इसके बावजूद कामरेड पी. सुंदरैय्या के नेतृत्व में पार्टी ने जुझारू पहुँच अपनाकर मेहनतकश जन-समूहों में शीघ्र ही अपने पाँव जमा लिये और देश के राजनीतिक मानचित्र पर सम्मानजनक स्थान बना लिया। परन्तु तीन साल बाद ही सी.पी.आई.(एम) में वाम संकीर्णतावादी भटकाव ने पुन: सिर उठा लिया और नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम पर इसका काफी काडर दुस्साहसवाद के कन्धों पर चढ़कर पार्टी से जुदा हो गया। जोकि देश को वास्तव में आज़ाद हुआ ही नहीं मानता अपितु इस बात का धारक है कि साम्राज्यवादी लुटेरों ने राज्यसत्ता अपने दलालों के हाथ में सौंपी हुई है और यहां दलाल-नौकरशाह पूँजीपतियों का राज्य है, न कि इजारेदार पूँजीपतियों के नेतृत्व में पूँजीपति-जागीरदारों का। दुस्साहसवाद की पटरी पर चढ़े कम्युनिस्ट आन्दोलन के इस भाग ने पिछले 40 वर्षों के दौरान चुनाव का बायकाट करने, व्यक्तिगत दहशतगर्दी, सिर्फ हथियारबंद गतिविधियां करने और जन-संगठनों के निर्माण के कार्य को निरर्थक मानने जैसे कई प्रयोग किये हैं, बलिदान भी दिये हैं, परंतु अपने आंदोलन को एकजुट रखने और मजबूत बनाने की जगह पैटी-बुर्जुआ मानसिकता के अधीन आंदोलन में विभाजन-दर-विभाजन किया है। एक भाग आज भी चुनाव बाहिष्कार और एकमात्र हथियारबन्द गतिविधियों पर खड़ा है जबकि कुछ अन्य भाग चुनाव में भाग लेने और जन संगठन बनाने की ओर परत आये हैं।
परंतु, भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब सी.पी.आई.(एम) के नेतृत्व द्वारा 1964 में पारित किये गए कार्यक्रम को त्याग दिया गया। इस कार्यक्रम को समयअनुकूलित करने के नाम पर इस पार्टी ने अक्टूबर 2000 में कार्यक्रम में निहित क्रांतिकारी समझदारी को बेहद छिछला बना दिया और तीनों ही वर्ग शत्रुओं अर्थात--जागीरदारों, साम्राज्यवादी लुटेरों और इजारेदार पूँजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष की धारा को कुंठित करके उनके साथ भागीदारी बना ली है और अमल में सी.पी.आई. जैसी युद्धनीतिक समझदारी ही अपना ली है। गत दिनों पश्चिमी बंगाल में, जहां सी.पी.आई.(एम) के नेतृत्व में आपात्तकाल के काले दौर के पश्चात सत्ता में आया वाम मोर्चा 30 वर्षों से प्रान्तीय सरकार चला रहा है, सिंगूर तथा नन्दीग्राम में गरीब किसानों व मजदूरों पर सरकार द्वारा ढाये गये बर्बर्तापूर्ण अत्याचार इस संशोधनवादी पहुँच का ही तार्किक निष्कर्ष हैं और इसने इस पार्टी की पूँजीपति लुटेरों के साथ बन चुकी घनिष्टïता को जग जाहिर कर दिया है। अन्तर्राष्टï्रीय स्तर पर सोवियत यूनियन और पूर्वी युरोपीय देशों में वहां की कम्युनिस्ट पार्टियों में आये संशोधनवादी पतन के परिणामस्वरूप समाजवाद को पहुँचे आघातों के कारण साम्राज्यवादी जोर-जबरदस्तियां बढ़ गई हैं और विश्वीकरण के नाम पर पिछड़े हुए अथवा विकासशील देशों में साम्राज्यवादी लूट-खसूट और तेज हो गई है, जिसके परिणामस्वरूप विश्व भर में कम्युनिस्टों का कार्य और कठिन हो गया है तथा यह पहले से भी अधिक दृढ़ता और साहस की मांग करता है। इन कठिन अवस्थाओं का सामना करने की बजाय सी.पी.आई.(एम) अब, भारत में विश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण पर आधारित जनविरोधी विकास के साम्राज्यवादी नुस्खे को अमली रूप देने के लिये देश में सबसे आगे है और इस उद्देश्य के लिये मेहनतकशों का सर्वनाश करने पर ऊतारू हो गई है।
इस तरह देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन में उभरे इन गंभीर सैद्धांतिक-राजनीतिक मतभेदों और इनसे लगे संगठनात्मक आघातों के कारण यहां के हकीकी कम्युनिस्टों के समक्ष आज गंभीर चुनौतियां खड़ी हैं। जबकि, सामाजिक विकास की गति तो रुकने वाली नहीं होती बेशक कभी कभी इसको अस्थायी आघात भी लग सकते हैं। इसी लिये पूँजीवादी व सामंती शोषण तथा सरकारी दमन के होते हुए भी देश में वर्ग संघर्ष को तेज करने के लिये बाहरमुखी तौर पर आधार निरंतर विकसित हो रहा है। परंतु कम्युनिस्टों के संगठनात्मक तौर पर कमजोर होने के कारण पूर्व-पूँजीवादी प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक सामाजिक-सांस्किृतिक विचारधारायें देश में जोरदार ढंग से सिर उठा रहीं हैं तथा पूँजीवादी शोषण से पीडि़त लोगों को पथ-विचलित कर रही हैं, जिनसे कम्युनिस्टों का कार्य और अधिक जटिल हो गया है।
इन अवस्थाओं में लोक-जनवादी-क्रांति की जरूरतें यह माँग करती है कि यहां उत्पादक शक्तियों को बाँध कर बैठे, भारतीय यौवन को बेकार रखकर नशों के सेवन की ओर तथा अन्य गैर असमाजिक धंधों की ओर धकेल रहे, मजदूरों को मंदहाली के नरक में फेंक रहे और किसानी को आत्म हत्यायें करने के लिये विवश कर रहे तीनों ही शत्रुओं के विरुद्ध वर्ग संघर्ष को इसके तीनों ही रूपों-आर्थिक, राजनीतिक और विचारधारक रूप में आगे बढ़ाया जायेे। इन संघर्षों को निरंतर तौर पर संगठित करते जाना और संघर्षों के उच्चतर रूपों की ओर अग्रसर होते जाना ही क्रांतिकारी अमल कहला सकता है। बुर्जुआ संसदीय चौखटे में भी वर्ग संघर्ष का राजनीतिक रूप मुख्य रूप से गैर-संसदीय संघर्ष ही होते हैं क्योंकि ऐसे चोखटे में भी मजदूर वर्ग के पक्ष में वर्गीय ताकतों के संतुलन में निर्णायक परिर्वतन केवल जनता की लामबंदी पर आधारित गैर संसदीय संघर्ष ही ला सकते हैं। इस लिए कम्युनिस्टों को गैर संसदीय गतिविधियों के द्वारा विशाल से विशाल जन शक्ति उभारने के लिये अपनी अधिक से अधिक शक्ति लगानी चाहिये।
बुर्जुआ संसदीय चौखटे में मेहनतकश आवाम का उत्पीडऩ तेज करने के लिये लुटेरे शासक वर्गों द्वारा किये जाते विभिन्न हमलों का विरोध करने के लिये संसदीय संघर्षों का उपयोग करना भी आवश्यक होता है। बेशक ऐसे संघर्ष की सीमाएं प्राय: बहुत ही सीमित रहतीं हैं, परंतु ,फिर भी शोषक वर्गों के आम लोगों के प्रति हमदर्दी और खोखले दावों का पर्दाचाक करने के लिए, उनके द्वारा लोगों को रिझाने के लिये किये जाते नित्य नये पाखण्डों की वास्तविकता उजागर करने के लिए और शासक वर्गोें के राजनीतिक नेतृत्व के निरंतर बढ़ते जाते नैतिक पतन को बेनकाब करने के लिये संसदीय मंचों का भी सफलता सहित प्रयोग करना चाहिये।
इस तरह संघर्ष के संसदीय व गैर संसदीय रूपों का सामंजस्य, भारत में लोक जनवादी क्रांति के कार्यन्वयन के लिए हकीकी कम्युनिस्टों को अति विवेक पूर्ण ढंग से और धैर्य पूर्वक उठाये गये साहसी व सुगठित प्रयत्नों द्वारा समय-समय पर उचित दावपेच लगाने होंगे। इस उद्देश्य के लिए फौरी तौर पर राजनैतिक मंच पर तथा जन-संगठनों के मंचों पर भी समस्त वामपंथी शक्तियों के प्रभाव वाले जन समूहों को एकजुट करने का कार्य बहुत ही महत्त्व रखता है, क्योंकि हर क्षेत्र में जनता की कतारबंदी पर आधारित प्रभावशाली संघर्ष के निर्माण में वामपंथी शक्तियों की एकता जादू की छड़ी का काम करती है। इसके बिना ऐसी संयुक्त गतिविधियां देश में हकीकी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण में भी ठोस योगदान करने के समर्थ होती है। अन्तिम तौर पर, यह भी याद रहना चाहिए कि शक्तिशाली हकीकी कम्युनिस्ट पार्टी बनाये बिना न तो मेहनतकश आवाम के लिए चिरस्थायी और कल्याणकारी सफलतायें ही प्राप्त की जा सकती हैं और न ही क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन संभव हो सकता है।
 

हकीकी क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण  मेहनतकश अवाम के चिरस्थाई कल्याण तथा शोषण मुक्त समाज के निर्माण की दिशा में कम्युनिस्टों के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये दरकार हकीकी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन करना भी अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण व जटिल कार्य है। पार्टी निर्माण का यह कार्य ऊपर से आरंभ होता है। माक्र्सवाद-लेनिनवाद को समझने वाले और इसकी समझदारी के अनुसार किसी राज्य/क्षेत्र की बाहरमुखी अवस्थाओं का विश्लेषण कर वहां जन हितैषी क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिये सुहृदयता सहित प्रयत्न करने के इच्छुक पार्टी कार्यकत्र्ता, अपने आपको एक अनुशासनबद्ध संगठन में बांधते है। वह आगे उस संगठन की जड़े लोगों में लगाने के लिये विशाल से विशाल स्तर पर, ऊपर से निर्धारित की गई योजनाबंदी के अनुसार गतिविधियां करते हैं और नीचे तक मेहनतकश आवाम की इकाईयां और अलग-अलग स्तर पर कमेटियों का एक संगठित जाल बुनने का प्रयास करते हैं। इस तरह मेहनतकश लोगों की हकीकी मुश्किलों के निदान के प्रति ऊपरी कमेटी में विकसित हुई समझदारी को नीचे तक अमली रूप देने का प्रयत्न करते हैं और निचले स्तर से आम लोगों की भावनाएँ तथा मांगें ऊपर के नेतृत्व के पास पहुँचती है। इस कार्य को सफलता तक पहुँचाने के लिये पार्टी इकाईयां सबसे बड़ी तथा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
इन सभी कार्यों को परिपूर्ण करने वाले पेशावर क्रांतिकारी के रूप में जाने जाते कम्युनिस्ट जहां ज्ञानवान, निस्वार्थ भावना से काम करने वाले भय-मुक्त व विश्वसनीयता सरीखे निजी गुणों की दृष्टिï से बहुत अद्वितीय होते हैं वहीं वे अपने कार्यकलाप तथा परस्पर संबंधों को प्रणालीबद्ध करने के लिये एक अनोखी कार्यशैली भी विकसित करते हैं। पार्टी की इस कार्य शैली आदि के बारे में महान लेनिन के नेतृत्व में दुनियां भर के कम्युनिस्टों ने मिलकर कुछ सैद्धांतिक नियम निर्धारित किये हैं जिनका पालन करना हरेक कम्युनिस्ट के लिये अनिवार्य है। इन बुनियादी सिद्धांतों की अवमानना के कारण ही कई कम्युनिस्ट नेता और कुछ कम्युनिस्ट पार्टियां तबाह हुई हैं तथा समस्त आन्दोलन को काफी बड़ी सीमा तक घायल करने तक गई हैं।
हकीकी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के लिए जनवादी केंद्रीयवाद और सामूहिक कार्य प्रणाली के दो नियम, बुनियादी स्तंभों का काम करते हैं। जनवादी केंद्रीयवाद पार्टी की एकता-एकजुटता और रचनात्मक पहलकदमी बढ़ाने की गारंटी करता है। इसके अनुसार पार्टी में न अफसरशाही की कोई जगह है और न ही अनुशासनहीनता (अल्ट्रा डैमोक्रेसी) की। पार्टी के भीतर हर मंच पर सम्पूर्ण जनवादी विधि के अनुसार विचार विमर्श करने और निर्णय लेने की पूरी गारंटी की जाती है। परंतु, किये गए निर्णयों का उल्लंघन या उनके विरूद्ध पार्टी मंच के बाहर जाकर प्रचार करने की बिल्कुल अनुमति नहीं दी जाती। इसी तरह ऊपरी कमेटियों द्वारा भेजे गये निर्णयों के प्रति निचली कमेटियों को अपनी राय भेजने की तो स्वतंत्रता है परंतु इस स्वतंत्रता का प्रयोग करके ऊपर से आये निर्णयों को अमली रूप देने में कोई बाधा खड़ी नहीं की जा सकती। कम्युनिस्ट पार्टी की अनुशासन पद्धति के अनुसार पार्टी का यह अनुशासन सबके लिए एक समान होता है अर्थात अनुशासन के दृष्टिïकोण से कोई बड़ा या छोटा नहीं होता।
पार्टी का विकास व प्रसार तो जन कार्यवाहियां संगठित करने और उनमें से उभरे जुझारू और सुहृदय तत्त्वों को पार्टी की अनुशासनबद्ध शाखाओं में विलीन कर लेने से ही होता है। परंतु, इस सम्पूर्ण कार्य को गति प्रदान करने का काम सामूहिक कार्य प्रणाली द्वारा किया जाता है। पार्टी की भीतरी गतिविधियां किसी व्यक्ति विशेष की आज्ञा पर निर्भर नहीं करती अपितु हर फैसला, हर स्तर पर संबंधित कमेटी सदस्यों से मिलकर लिया जाता है, पार्टी द्वारा किये गये निर्णय को हरेक की ओर से अपनी-अपनी जिम्मेवारी के अनुसार अमली रूप देने के उपरांत इस के बारे में हुई प्रगति आदि की जाँच पड़ताल भी मिलकर ही की जाती है, जिसके लिए आलोचना व स्वयं आलोचना की प्रणाली का बिना किसी हिचहिचकाहट के प्रयोग किया जाता है।
पार्टी सदस्यों में निजी गुणों के विकास के लिये कम्युनिस्ट सदाचार का पालन करने को आवश्यंभावी बनाने के प्रयास किये जाते हैं। इस प्रयोजन हेतु पार्टी में परस्पर सुहृदयता व समानता पूर्ण वातावरण विकसित किया जाता है तथा हरेक से अपेक्षा की जाती है कि वह पार्टी द्वारा मिले कार्यों को अपनी सम्पूर्ण साम्थर्य के अनुसार निभाये और कोई भी ऐसा व्यवहार न करे जिसमें कि संबंधित मेहनतकश जन समूहों की नजर में पार्टी की प्रतिष्ठïा को ठेस लगती हो। कम्युनिस्ट सदाचार से संबंधित सिद्धांतों में से किसी एक का भी बार-बार उल्लंघन करने से कम्युनिस्ट भटकावों के शिकार हो जाते हैं और कई बार अपने को भी तथा समूचे आन्दोलन को भी काफी क्षति पहुँचा देते हैं। इसलिए पार्टी द्वारा पार्टी के अन्दर घुसपैठ करती लघु-बुर्जुआ कुरूचियों के विरुद्ध और सैद्धांतिक भटकावों के विरुद्ध भी निरंतर चौकसी रखी जाती है और इसके विरुद्ध अन्र्तपार्टी संघर्ष, सदैव जारी रखा जाता है।
इस तरह कम्युनिस्ट हर देश के मेहनतकश जनसमूहों को उनके शोषण के विरुद्ध चेतन करते हैं और उनको संगठित करके वर्ग संघर्ष के लिये तैयार करते हैं, लोगों को शोषण से सदैव मुक्ति प्राप्त करने के योग्य बनाने के लिए एक अनुशासनबद्ध पार्टी का निर्माण करते हैं, उस पार्टी की एकता की रक्षा आँख की पुतली की तरह करते हैं, उसकों हर प्रकार के भटकावों से बचाने के लिये निरंतर प्रयास करते हैं, हर प्रकार के दमन तथा उत्पीडऩ का निर्भय होकर सामना करते हैं और मानव द्वारा मानव के शोषण पर आधारित पूँजीवादी प्रणाली को ध्वस्त करके समाजवाद के निर्माण के लिये निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं।

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